तोमर राजवंश दिल्ली शासकों ने 8वीं-12वीं सदी में उत्तर भारत में शक्तिशाली राजपूत साम्राज्य स्थापित किया। अनंगपाल तोमर प्रथम द्वारा स्थापित इस राजवंश ने दिल्ली निर्माण, लाल कोट किला और हरियाणा-पंजाब सहित विशाल क्षेत्र पर शासन किया।
Table of Contents
- तोमर राजवंश की उत्पत्ति और स्थापना
- अनंगपाल तोमर प्रथम: संस्थापक
- स्वतंत्र राज्य का उदय
- अनंगपाल तोमर द्वितीय: दिल्ली निर्माता
- क्षेत्रीय विस्तार और प्रशासन
- सांस्कृतिक और स्थापत्य विरासत
- पतन और चौहान उत्तराधिकार
तोमर राजवंश की उत्पत्ति और स्थापना
तोमर राजवंश दिल्ली शासक उत्तर भारत के सबसे महत्वपूर्ण राजपूत कुलों में से एक के रूप में उभरे जिन्होंने 8वीं से 12वीं सदी तक शासन किया। दिल्ली के तोमर (आधुनिक स्थानीय भाषाओं में श्वा विलोपन के कारण तोमर राजवंश भी कहे जाते हैं) ने 8वीं-12वीं सदी के दौरान वर्तमान दिल्ली और हरियाणा के हिस्सों पर शासन किया।
विकिपीडिया के दिल्ली के तोमरों के व्यापक दस्तावेजीकरण के अनुसार, इस क्षेत्र पर उनका शासन कई शिलालेखों और सिक्कों से प्रमाणित है। इसके अलावा, उनके बारे में अधिकांश जानकारी मध्यकालीन चारणी किंवदंतियों से आती है। वे राजपूतों के तोमर कुल से संबंधित थे।
तोमर राजवंश दिल्ली शासकों ने महाभारत के पौराणिक वीरों से अपने वंश की प्राचीन उत्पत्ति का दावा किया। पुराणों की ऐतिहासिक वंशावलियों के अनुसार, तोमर पांडव राजकुमार अर्जुन के वंशज हैं, उनके महान पौत्र सम्राट जनमेजय के माध्यम से, जो सम्राट परीक्षित के पुत्र थे।
राजवंश के नाम का विकास उनकी ऐतिहासिक यात्रा को दर्शाता है: पहले तोमर ‘तूर’ के रूप में जाने जाते थे जो बाद में ‘तंवर’ में बदल गए और फिर ‘तोमर’ में। यह भाषाई परिवर्तन उत्तर भारत में उनकी शताब्दियों के शासन के दौरान हुए सांस्कृतिक और राजनीतिक परिवर्तनों को दर्शाता है।
प्रारंभ में, तोमर राजवंश दिल्ली शासकों ने शक्तिशाली गुर्जर-प्रतिहार राजवंश के अधीन सामंतों के रूप में सेवा की। 8वीं-10वीं सदी ईस्वी में, शुरुआत में तोमर प्रतिहारों के सामंत या जागीरदार थे। इस अवधि ने उन्हें प्रतिहार अधिपत्य के तहत राजनीति सीखते हुए अपनी प्रशासनिक कुशलता और सैन्य कौशल स्थापित करने की अनुमति दी।
उनकी स्वतंत्र शक्ति की नींव तब आई जब प्रतिहार शक्ति के ह्रास के साथ, तोमरों ने 10वीं सदी तक दिल्ली के आसपास एक संप्रभु रियासत स्थापित की। इस संक्रमण ने उत्तर भारतीय राजनीति में प्रमुख खिलाड़ियों के रूप में उनके उदय की शुरुआत को चिह्नित किया।
अनंगपाल तोमर प्रथम: संस्थापक
तोमर राजवंश दिल्ली शासकों में सबसे प्रसिद्ध व्यक्तित्व अनंगपाल तोमर प्रथम थे, जिन्होंने राजवंश की स्थापना की और दिल्ली में अपनी राजधानी स्थापित की। चारणी साहित्य में राजवंश को “तुअर” के रूप में संदर्भित किया गया और उन्हें 36 राजपूत कुलों में से एक के रूप में वर्गीकृत किया गया। चारणी साहित्य के अनुसार, तोमर राजवंश की स्थापना 736 ईस्वी में अनंगपाल प्रथम द्वारा की गई थी।
किंवदंती और ऐतिहासिक वृत्तांतों के अनुसार, दिल्ली की स्थापना 736 ईसा पूर्व में तंवर राजा अनंगपाल प्रथम द्वारा की गई थी, जिन्होंने पांडव पूर्वज की राजधानी को फिर से स्थापित किया। यह स्थापना का क्षण उत्तर भारतीय इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक है।
अनंगपाल तोमर प्रथम की सबसे बड़ी उपलब्धि मूल दिल्ली किलेबंदी का निर्माण था। उन्होंने दिल्ली के चारों ओर ‘लाल कोट’ नामक एक दीवार का निर्माण किया, जो उनकी राजधानी थी। यह किला उस नींव बन गया जिस पर भविष्य की सभी दिल्ली किलेबंदी का निर्माण होगा।
दिल्ली के स्थान के चयन में अनंगपाल प्रथम की रणनीतिक दृष्टि उल्लेखनीय रूप से दूरदर्शी साबित हुई। इस स्थल ने प्राकृतिक रक्षात्मक लाभ प्रदान किए जबकि उत्तर और पश्चिम भारत को जोड़ने वाले महत्वपूर्ण व्यापारिक मार्गों पर नियंत्रण प्रदान किया।
अनंगपाल प्रथम के नेतृत्व में, तोमर राजवंश दिल्ली शासकों ने प्रशासनिक और सैन्य अवसंरचना स्थापित करना शुरू किया जो उनके शासन का समर्थन करेगी। दिल्ली में उनके राज्य की स्थापना ने एक शक्ति केंद्र बनाया जो गंगा के मैदानों और पंजाब क्षेत्र में प्रभावी रूप से अधिकार का प्रक्षेपण कर सकता था।
विकिपीडिया के अनंगपाल तोमर के विस्तृत विश्लेषण के अनुसार, उन्होंने महाभारत के महाकाव्य से अर्जुन के नाम से चंद्रवंशी क्षत्रिय राजाओं से वंश का पता लगाया। इस वंशावली के दावे ने राजवंश की वैधता को मजबूत किया।
स्वतंत्र राज्य का उदय
सामंतों से स्वतंत्र संप्रभु बनने के लिए तोमर राजवंश दिल्ली शासकों का परिवर्तन मध्यकालीन भारत के राजनीतिक विकास के सबसे सफल उदाहरणों में से एक है। प्रतिहारों के पतन के साथ, तोमर 10वीं सदी में स्वतंत्र शासक बन गए, प्रतिहार पतन द्वारा बनाए गए शक्ति शून्य का फायदा उठाते हुए।
स्वतंत्रता प्राप्त करने की प्रक्रिया क्रमिक लेकिन निर्णायक थी। स्वतंत्रता प्राप्त करने के तुरंत बाद, तोमर अपने पड़ोसियों, शाकंभरी के चाहमान और बाद में गहड़वाल राजवंश के साथ संघर्षों में शामिल हो गए। इन संघर्षों ने उनकी सैन्य क्षमताओं का परीक्षण किया।
तोमर राजवंश दिल्ली शासकों को अपनी पहली बड़ी सैन्य चुनौती का सामना तब करना पड़ा जब चाहमान राजा विग्रहराज द्वितीय के 973 ईस्वी के शिलालेख के अनुसार, उनके पूर्वज चंदन (लगभग 900 ईस्वी) ने एक युद्ध में तोमर मुखिया रुद्रेण (या रुद्र) को मार डाला था।
सैन्य असफलताओं के बावजूद, तोमर राजवंश दिल्ली शासकों ने दिल्ली के आसपास अपने शक्ति आधार को सफलतापूर्वक मजबूत किया। उनकी रणनीतिक स्थिति और बढ़ती सैन्य ताकत ने सहयोगियों और सहायक नदियों को आकर्षित किया।
इस अवधि के दौरान उन्होंने जो प्रशासनिक संरचना विकसित की, उसने प्रभावी शासन की नींव रखी। तोमरों के राजवंश में एक राजशाही प्रशासनिक संरचना थी जहां राजा या सम्राट के हाथों में सर्वोच्च शक्ति होती थी। मंत्रियों का एक समूह राजा की सहायता करता था।
11वीं सदी तक, तोमर राजवंश दिल्ली शासकों ने सफलतापूर्वक खुद को प्रमुख क्षेत्रीय शक्तियों के रूप में स्थापित कर लिया था, जो उत्तर भारत में वर्चस्व के लिए अन्य महत्वपूर्ण राजवंशों को चुनौती देने में सक्षम थे।
अनंगपाल तोमर द्वितीय: दिल्ली निर्माता
तोमर राजवंश दिल्ली शासकों में सबसे प्रसिद्ध शासक अनंगपाल तोमर द्वितीय थे, जिन्होंने दिल्ली को एक प्रमुख शहरी केंद्र और स्थापत्य चमत्कार में बदल दिया। चारणी परंपरा के अनुसार, राजा अनंगपाल तुअर (यानी अनंगपाल द्वितीय तोमर; तोमर राजवंश के संस्थापक अनंगपाल प्रथम के साथ भ्रमित नहीं होना चाहिए) ने 1052 ईस्वी में दिल्ली की स्थापना की।
अनंगपाल द्वितीय की स्थापत्य उपलब्धियां अपने समय के लिए असाधारण थीं। सबसे लोकप्रिय तोमर शासक जिन्होंने तोमर राजवंश की स्थापना की, वे अनंगपाल द्वितीय हैं, जो अनंगपाल तोमर के नाम से लोकप्रिय हैं। उन्होंने ढिल्लिका पुरी के साथ आया, जो बाद में दिल्ली बन गया।
अनंगपाल द्वितीय द्वारा किए गए निर्माण परियोजनाओं ने तोमर राजवंश दिल्ली शासकों की संपत्ति और संगठनात्मक क्षमता का प्रदर्शन किया। उन्होंने मथुरा जिले के सांख से लौह स्तंभ लाकर 1052 में दिल्ली में स्थापित कराया जैसा कि इस पर उत्कीर्ण शिलालेखों से स्पष्ट है। यह प्रसिद्ध लौह स्तंभ दिल्ली के सबसे स्थायी स्मारकों में से एक बन गया।
अनंगपाल द्वितीय के तहत विस्तारित और मजबूत किए गए लाल कोट किले ने मध्यकालीन भारत की सबसे उन्नत किलेबंदी तकनीक का प्रतिनिधित्व किया। लाल कोट का निर्माण 1060 में पूरा हुआ। किले की परिधि 2 मील से अधिक थी और किले की दीवारें 60 फीट लंबी और 30 फीट मोटी थीं।
सैन्य वास्तुकला से परे, अनंगपाल द्वितीय ने नागरिक बुनियादी ढांचे में भी योगदान दिया। मेहरौली में अनंग ताल बावली जो दिल्ली में बावली का सबसे पुराना मौजूदा आदिम रूप है, उनके द्वारा निर्मित की गई थी। उनके एक पुत्र सूरजपाल का श्रेय सूरजकुंड के निर्माण का दिया जाता है जहां वार्षिक मेला आयोजित होता है।
अनंगपाल द्वितीय के सिक्कों पर दो प्रकार के पौराणिक छंद थे: ‘श्री अनंगपाल’ – एक शुद्ध संस्कृत संस्करण और ‘श्री अणंगपाल’ – एक स्थानीय हरियाणवी बोली संस्करण। इस ‘श्री अणंगपाल’ का उपयोग अत्यधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि मध्यकालीन हिंदी के वास्तविक जनक अनंगपाल द्वितीय हैं।
क्षेत्रीय विस्तार और प्रशासन
तोमर राजवंश दिल्ली शासकों का क्षेत्रीय विस्तार उनकी बढ़ती शक्ति और प्रभाव का प्रमाण था। तोमर क्षेत्र में वर्तमान दिल्ली, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्से शामिल थे। 13वीं सदी के एक शिलालेख में कहा गया है कि तोमरों ने चाहमानों और शकों (इस संदर्भ में तुर्क) से पहले हरियाणक (हरियाणा) देश पर शासन किया था।
अनंगपाल तोमर द्वितीय के शासनकाल के दौरान तोमर साम्राज्य दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान के विभिन्न हिस्सों में फैला हुआ था। उत्तर भारत में 457 वर्षों तक शासन करने के दौरान तोमरों की राजधानी कुछ बार बदली।
तोमर साम्राज्य की पहली राजधानी अनंगपुर थी जबकि अंतिम राजधानी ढिल्लिकापुरी (दिल्ली, लाल कोट) थी। राज्य के राजनीतिक महत्व के अन्य भाग निम्नलिखित थे: पठानकोट-नूरपुर, पाटन-तंवरावती, नगरकोट (कांगड़ा), असीगढ़ (हांसी), स्थानेश्वर (थानेसर), मथुरा।
यह माना जाता है कि हांसी की स्थापना अनंगपाल ने अपने गुरु “हंसकर” के लिए की थी। बाद में, उनके पुत्र द्रुपद ने इस किले में एक तलवार निर्माण कारखाना स्थापित किया, इसलिए इसे “असीगढ़” भी कहा जाता है। इस किले से तलवारों का निर्यात अरब देशों तक किया जाता था।
1915 में काजी शरीफ हुसैन द्वारा लिखित तालिफ-ए-तजकारा-ए-हांसी के अनुसार, इस केंद्र “असीगढ़” से क्षेत्र के लगभग 80 किले नियंत्रित किए जाते थे। उन्होंने राजस्थान के करौली जिले में तहांगढ़ किला (त्रिभुवनगिरी) का निर्माण किया और “त्रिभुवन पाल नरेश” के रूप में भी जाने जाते थे।
सांस्कृतिक और स्थापत्य विरासत
तोमर राजवंश दिल्ली शासकों की सांस्कृतिक और स्थापत्य विरासत आज भी दिल्ली और आसपास के क्षेत्रों में दिखाई देती है। उनके द्वारा निर्मित स्मारक और संरचनाएं भारतीय स्थापत्य कला के महान उदाहरण हैं।
लाल कोट दिल्ली का मूल ‘लाल किला’ था। आज हम जिसे लाल किला या लाल किला कहते हैं, वह मूल रूप से किला-ए-मुबारक कहलाता था। दिल्ली के लौह स्तंभ पर कई शिलालेखों में से एक में अनंगपाल का उल्लेख है। एक मध्यकालीन किंवदंती में एक ब्राह्मण ने अनंगपाल (उर्फ बिलन देव) से कहा था कि स्तंभ का आधार वासुकी सर्प के सिर पर टिका हुआ था।
हरियाणा क्षेत्र भाषाओं का स्रोत था जो तुलसीदास और अमीर खुसरो की भाषाएं थीं। हिंदी के विकास का श्रेय अमीर खुसरो को दिया जाता है लेकिन इतिहासकार और पुरालेख विद्या के विशेषज्ञ हरिहर निवास द्विवेदी के अनुसार, वास्तविकता यह है कि इसे उनसे कई शताब्दियों पहले दिल्ली के तोमरों द्वारा डिजाइन किया गया था।
अनंगपाल तोमर द्वितीय द्वारा किए गए सिक्कों में दो प्रकार के पौराणिक छंद थे जो भाषाई विकास को दर्शाते हैं। मध्यकालीन हिंदी के वास्तविक जनक अनंगपाल द्वितीय हैं और इसका जन्मस्थान हरियाणा है।
तेलुगु सिनेमा के विकास की तरह, हिंदी भाषा का विकास भी क्षेत्रीय शासकों के संरक्षण में हुआ। तोमर राजवंश दिल्ली शासकों का भाषाई योगदान आज भी हिंदी भाषी क्षेत्रों में देखा जा सकता है।
पतन और चौहान उत्तराधिकार
तोमर राजवंश दिल्ली शासकों का पतन 12वीं सदी में चाहमान (चौहान) राजवंश के उदय के साथ शुरू हुआ। 12वीं सदी में, तोमरों को अजमेर के चौहानों द्वारा उखाड़ फेंका गया था जिन्होंने दिल्ली में उनकी राजधानी पर कब्जा कर लिया था। यह परिवर्तन उत्तर भारतीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण मोड़ था।
चारणी किंवदंतियों के अनुसार अंतिम तोमर राजपूत राजा, अनंगपाल तोमर (अनंगपाल के नाम से भी जाना जाता है) ने दिल्ली का सिंहासन अपने दामाद पृथ्वीराज चौहान (शाकंभरी के चाहमान राजवंश के पृथ्वीराज तृतीय; लगभग 1179-1192 ईस्वी) को सौंप दिया था।
हालांकि, यह दावा सही नहीं है: ऐतिहासिक साक्ष्य दिखाते हैं कि पृथ्वीराज ने दिल्ली अपने पिता सोमेश्वर से विरासत में प्राप्त की थी। सोमेश्वर के बिजोलिया शिलालेख के अनुसार, उनके भाई विग्रहराज चतुर्थ ने ढिल्लिका (दिल्ली) और अशिका (हांसी) पर कब्जा किया था।
तोमर राजवंश दिल्ली शासकों का अंतिम पतन 1192 ईस्वी में मुहम्मद गोरी के आक्रमण के साथ हुआ। वे चाहमानों द्वारा विस्थापित हुए थे, जो खुद जल्द ही 1192 ईस्वी में गुरिद शासक मुहम्मद गोरी द्वारा विस्थापित हो गए।
राजपूत इतिहास में तोमर राजवंश का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है। भारतीय राजवंशों की सूची में तोमर राजवंश दिल्ली शासकों का योगदान उत्तर भारतीय राजनीति, संस्कृति और स्थापत्य के विकास में अमूल्य है।
तोमर राजवंश के पतन के बाद, उनकी शाखाएं विभिन्न क्षेत्रों में फैल गईं। मध्यकालीन भारत के इतिहास में तोमर राजवंश दिल्ली शासकों की विरासत आज भी जीवित है, विशेष रूप से दिल्ली, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान के क्षेत्रों में जहां तोमर राजपूत समुदाय बड़ी संख्या में निवास करते हैं।