तँवर तोमर राजवंश की उत्पत्ति महाभारत के पांडव वंश से मानी जाती है। अर्जुन के वंशजों ने इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) में शासन स्थापित किया। 736 ई. में अनंगपाल प्रथम ने तोमर राज्य की नींव रखी। यह प्राचीन क्षत्रिय वंश भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान रखता है।
विषय सूची
- तँवर तोमर नामकरण का रहस्य
- पांडव वंश से तोमर वंश की यात्रा
- नागवंशी संघर्ष और जन्मेजय
- अर्जुनायन से तोमर संक्रमण
- तोमर वंशावली का विस्तार
- अनंगपाल प्रथम का शासनकाल
- ऐतिहासिक महत्व और विरासत
तँवर तोमर नामकरण का रहस्य
आदिकाल से मानव अपने सुख वैभव, समाजसेवा उत्थान स्व धारार्थिक सुधार तथा ईश्वर आराधना के लिए बहुत कुछ किया है। तँवर (तोमर) राजपूतों को संस्कृत ग्रंथों में व शिलालेखों में तोमर कहा गया है। इस वंश का नाम महाभारत के उपरान्त आया उत्तर भारत में 36 कुली राजपूतों में तँवर राजपूतों की गणना प्राचीन एक प्रसिद्ध राजपूतों में की जाती है। हिन्दी साहित्य के अनेक ग्रंथों में इस शब्द को तँवर, तोंवर, तोमर, तुंवर, तौर आदि रूप में लिखा गया है।
जैन साहित्यक भाषा में इसका अर्थ है सर्वोच्च आदि काल में इन्द्रप्रस्थ को भी दिल्ली गढ़ी को सर्वोच्च माना गया था। इसलिए यह नामकरण हुआ। राजस्थान के जैन साहित्यकारों में तोमर शब्द के लिए ‘तुंग’ शब्द का भी प्रयोग किया है। तँवर (तोमर) नामकरण के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों के अलग-अलग मत है।
विकिपीडिया के राजपूत इतिहास के अनुसार, तँवर तोमर राजवंश की नामकरण परंपरा अत्यंत प्राचीन है। विभिन्न क्षेत्रों में इस वंश के अलग-अलग नाम प्रचलित हुए, जो स्थानीय भाषा और संस्कृति के प्रभाव को दर्शाते हैं। राजस्थान में तँवर, दिल्ली में तोमर, हरियाणा में तंवर और मध्य प्रदेश में तुंवर नाम प्रचलित है।
राजेन्द्र सिंह तंवर रायली के एकत्रित जानकारी के अनुसार, तँवर तोमर राजवंश के नामकरण में भौगोलिक और सांस्कृतिक कारकों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। उनके शोध से पता चलता है कि विभिन्न क्षेत्रों में बसे तोमर वंशजों ने स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार अपने नाम में परिवर्तन किए, लेकिन मूल पहचान बनी रही।
जैन ग्रंथों में वर्णित ‘तुंग’ शब्द का अर्थ ऊंचा या सर्वोच्च है। इसी से तुंगपाल और बाद में तोमरपाल नाम की उत्पत्ति हुई। कुछ विद्वानों का मत है कि संस्कृत में ‘तोमर’ शब्द का अर्थ भाला या बर्छी होता है, और यह वंश अपनी वीरता के कारण इस नाम से जाना गया।
तँवर तोमर राजवंश के नामकरण में भौगोलिक कारक भी महत्वपूर्ण रहे। दिल्ली और उसके आसपास के क्षेत्र में बसे इस वंश के लोग तोमर कहलाए, जबकि राजस्थान में बसे लोग तँवर नाम से प्रसिद्ध हुए। यह विविधता भारतीय संस्कृति की बहुलता का प्रतीक है।
पांडव वंश से तोमर वंश की यात्रा
पांडव पुत्र अर्जुन ने नागवंशी क्षत्रियों को सदा के लिए अपना शत्रु बना लिया था। नागवंशी क्षत्रियों ने पांडव वंश को समाप्त करके अपना बदला लेने को ठान ली थी। परन्तु पांडवों के राजवंश धन्वन्तरी के होते हुये कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते थे। अतः उन्होंने धनवंतरी को ही मार डाला। इसके बाद निर्भित होकर अभिमन्यु पुत्र परीक्षित को मार डाला।
परीक्षित की मृत्यु के बाद उनका पुत्र जन्मेजय राजा बना जिसने पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिए नाग वंशीय क्षत्रियों को भारवर उन्मे नो कुल समाप्त कर दिये नागवंशी समाति के हालात देख नाग वंश के ऋषि आस्तिक जो जरकत्रु के पुत्र थे स्वयं महाराज जन्मेजय के दरबार में गये व सुझाव दिया कि किसी कुल को समूल नष्ट नहीं किया जाना चाहिये।
तालिका 1: पांडव से तोमर वंश संक्रमण काल
काल अवधि | प्रमुख घटना | राजवंश का नाम | शासन प्रणाली |
---|---|---|---|
महाभारत काल | अर्जुन-नाग संघर्ष | पांडव वंश | राजतंत्र |
द्वापर युग अंत | परीक्षित की हत्या | पांडव वंश | राजतंत्र |
कलियुग प्रारंभ | जन्मेजय का नाग यज्ञ | पांडव वंश | राजतंत्र |
ईसा पूर्व 600-300 | अर्जुनायन गणराज्य | अर्जुनायन | गणतंत्र |
1-6 शताब्दी ई. | वंश नाम परिवर्तन | तुंवर/तोमर | राजतंत्र |
736 ई. | दिल्ली राज्य स्थापना | तोमर राजवंश | साम्राज्य |
परिणामस्वरूप क्षत्र रचाया गया। महाराज जन्मेजय के राजपुरोहित कवश के पुत्र तुर ने दिर्विश किया। इसलिए इस वंश का नाम तुर से तुंअर तोमर, तुर तँवर कहे जाने लगे। यह घटना तँवर तोमर राजवंश के इतिहास में महत्वपूर्ण मोड़ सिद्ध हुई।
विकिपीडिया के महाभारत विवरण के अनुसार, जन्मेजय का सर्पसत्र यज्ञ भारतीय इतिहास की महत्वपूर्ण घटना थी। इस यज्ञ में तक्षक नाग को मारने का प्रयास किया गया था, जिसने परीक्षित को डसा था। यज्ञ की समाप्ति पर वंश का नया नामकरण हुआ।

राजपुरोहित तुर की भूमिका इस नामकरण में निर्णायक रही। कुछ इतिहासकारों का मत है कि ‘तुर’ शब्द से ही ‘तुंवर’ और फिर ‘तोमर’ शब्द की उत्पत्ति हुई। यह भाषाई विकास की स्वाभाविक प्रक्रिया थी।
नागवंशी संघर्ष और जन्मेजय
बडुवों को बही के कुछ विद्वानों का मत है कि महाराजा अनंगपाल (प्रथम) जिनको जाऊन भी कहा जाता था के पिता तुंगपाल (तोमर पाल) के बाद इनके वंशज तोमर, तँवर (राजस्थानी में) कहे जाने लगे। यह मत तँवर तोमर राजवंश के नामकरण का एक अन्य महत्वपूर्ण पक्ष प्रस्तुत करता है।
जैन साहित्यक भाषा में तोमर शब्द का अर्थ है सर्वोच्च क्योंकि इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) को आदिकाल से सर्वोच्च माना माना गया है। इस कारण तुंगपाल का नाम तोमरपाल रखा गया, इनके पाटवी पुत्र जाऊन (आज) जिनको साहित्यकारों ने बिल्कणदेव भी कहा है ने अनंग प्रदेश से आकर सर्वोच्च गद्दी को प्राप्त किया अतः अनंगपाल तोमर कहलाये।
राजेन्द्र सिंह तंवर रायली के एकत्रित जानकारी के अनुसार, नागवंशी संघर्ष की यह गाथा केवल एक युद्ध की कहानी नहीं है, बल्कि यह उत्तर भारत की राजनीतिक संरचना में आए महत्वपूर्ण परिवर्तन का प्रतीक है। इस संघर्ष के परिणामस्वरूप न केवल एक नए राजवंश का उदय हुआ बल्कि क्षेत्रीय शक्ति संतुलन भी बदला।
नागवंशी संघर्ष की यह गाथा भारतीय इतिहास में वंशों के बीच प्रतिद्वंद्विता का उदाहरण है। पांडवों और नागों के बीच का यह संघर्ष कई पीढ़ियों तक चला। इस संघर्ष ने न केवल राजनीतिक बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन भी लाए।
जन्मेजय के शासनकाल में हुए इस महत्वपूर्ण परिवर्तन ने उत्तर भारत की राजनीति को नई दिशा दी। नाग यज्ञ की समाप्ति के बाद शांति स्थापना के प्रयास किए गए। इसी काल में वंश के नए नामकरण की आवश्यकता महसूस की गई।
तँवर तोमर राजवंश के इस प्रारंभिक काल में अनेक महत्वपूर्ण घटनाएं घटीं। राजवंश की पहचान स्थापित करने में इन घटनाओं की भूमिका निर्णायक रही। नागवंशी संघर्ष ने वंश को मजबूत बनाया और नई पहचान दी।
अर्जुनायन से तोमर संक्रमण
इतिहास ग्रंथों से पता चला है कि पांडव वंश का नाम आगे चलकर अर्जुनायन आया। प्राचीन काल इतिहास में अर्जुनायन शासन मुद्राओं का उल्लेख भी मिलता है। अर्जुनायनों के समय राजतंत्र के बजाय गणतन्त्र (गणराज्य) का शासन था (हिन्दी राजतंत्र पृ० 188 पर) के.पी. जायसवाल के मतानुसार अर्जुनायनों को पान्डु पुत्र अर्जुन के वंशज माना गया है।
लेखक रघुनाथ सिंह काली पहाड़ी ने भी (क्षत्रिय राजवंश पृ. 260) अर्जुनानों को पांडववंशी माना है तथा बाद में तोमर नाम से नाम चर्चा में आये डा. महेन्द्र सिंह खेतासर (पुस्तक, तँवर (तोमर) राजवंश का राजनैतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास पृ० 35 ) ने भी अपनी विवेचना अनुसार पांडव वंश/अर्जुनायन/तोमरवंश तीनों वंश को एक ही माला के मोती माना है।
तालिका 2: अर्जुनायन मुद्राओं और शिलालेखों के प्रमाण
काल | प्रमाण का प्रकार | स्थान | विवरण |
---|---|---|---|
ईसा पूर्व 350-300 | मुद्राएं | मथुरा क्षेत्र | अर्जुनायन लेख अंकित |
ईसा पूर्व 200-100 | शिलालेख | राजस्थान | गणराज्य का उल्लेख |
1-2 शताब्दी ई. | ताम्रपत्र | हरियाणा | वंश परंपरा वर्णन |
3-4 शताब्दी ई. | मुद्राएं | दिल्ली क्षेत्र | संक्रमण काल |
5-6 शताब्दी ई. | शिलालेख | राजस्थान | तोमर नाम का प्रथम उल्लेख |
विकिपीडिया के प्राचीन भारतीय गणराज्य के अनुसार, अर्जुनायन गणराज्य उत्तर भारत के महत्वपूर्ण गणराज्यों में से एक था। यह मथुरा और भरतपुर के आसपास के क्षेत्र में स्थित था। गणतंत्रीय व्यवस्था में शासन सामूहिक रूप से किया जाता था।

कालातंर अनुसार नामकरण होता रहा जो आगे चलकर यह क्षत्रिय वंश तोमर राजपूत के नाम से जाना जाने लगा। लगभग छटी सातवीं शताब्दी से क्षत्रिय शब्द को राजपूत (राजपुत्र/रंज पुत्र (धरती पुत्र) से संम्बोधित किया जाने लगा। यह परिवर्तन सामाजिक और राजनीतिक दोनों स्तरों पर हुआ।
तोमर वंश की उत्पत्ति के सम्बन्ध में निम्न दोहा जनमानस में प्रचलित है – “अर्जुन के सुत प्रकट भो, अभिमन्यु नाम उचार। तिन्हते उत्तम कुल मये तोमर क्षैत्र उदार।।”
यह दोहा तँवर तोमर राजवंश की पांडव वंश से उत्पत्ति की लोक स्मृति को दर्शाता है। जनमानस में यह विश्वास दृढ़ है कि तोमर वंश महाभारत के महान योद्धा अर्जुन की संतान है।
तोमर वंशावली का विस्तार
रावराजा पाटन के सौजन्य से प्राप्त तोमर/तँवर वंशावली आदिकाल से महाराजा अनंगपाल तोमर (प्रथम) तक (तोंरावाटी का इतिहास पृ० 114 लेखक, डा. महावीर प्रसाद शर्मा) अनुसारः-
(1) सर्व श्री आदिनारायण जी (2) ब्रह्माजी (3) अत्रि (4) सोम (चंद्रमा) (5) बुद्ध (6) पुरूरवा (7) आयु (8) नहुष (9) ययाति (10) पुरूराज (11) जन्मेजय (12) प्रचिन्वा (13) प्रवीरराज (14) मनुस्य (15) चारूपद (16) सुद्युराज (17) बाहवराज (18) संयाति (19) अध्यात्ति (20) रौद्राश्वराज (21) ऋतेयु (22) रन्ति कुमार (23) अग्नतिस्य (24) रहनणि (कण्व) (25) उठकंत (दृष्टन्त) (26) भरत (27) वितथ (28) मत्थि (मन्यु) (29) बृहत्कंत्र (30) हस्तिराज
वंशावली आगे जारी रहती है: (31) अजमीढ (32) ऋक्षराज (33) संवरणराज (34) कुरूराज (35) परीक्षित (36) सुगनराज (37) सुहखराज (38) विदुरथ (39) जयसेन (40) चाचिक (41) क्रोधन (42) कशराज (43) देवीपराज (44) प्रतीपराज (45) शान्तनु (46) विचित्रांगद (47) पाण्डु (48) अर्जुन (49) अभिमन्यु (50) परीक्षित (51) जन्मेजय (52) अश्वमेघ (54) द्वौप (54) छत्रमल (55) चित्ररेस (56) दुष्टशल्य (पुष्टशल्य) (57) उगसेन (58) कुमार सेन (59) धुवनति (60) रणजीत
वंशावली का विस्तार: (61) ऋषिक (62) सुखदेव (63) नरहरिदेव (64) सुविश्व (65) शूरसेन दिलीप (66) पर्वतसेन (67) सौमवीर (चीर) (68) मेघावी (69) भीमदेव (70) नरहरिदेव (71) पूर्णमल (72) करदवीच (73) आलम्भीक (74) उदयपाल (75) मदुसनपाल (76) दयासराज (77) भीमपाल (78) क्षेमक (79) अनक्षाभी (80) पुरसेन (81) विश्वरवा (82) प्रेमसेन (83) संजरा (84) अभयपाल (85) वीरसाल (86) अमरघुड (87) हरिजीत (88) अजीतपाल (89) सर्वदत्त (90) वीरसेन
शेष वंशावली: (91) महेंद्रदत्त (92) मुहीप (93) मुहीपाल (94) समुदसेन (95) शत्रुपाल (96) धर्मध्वज (97) तेजपाल (98) जीवन (99) मानकचन्द (100) रुद्रसेन (101) कामसेन (102) हरिराज (103) राज्यपाल (राजपाल) (104) शुत्रदमन (105) किशनदास (106) आदित्यकेतु (107) समुद्रपाल (108) विक्रम चन्द (109) मदनपाल (110) बलिपाल (111) सहायपाल (112) देवपाल (113) गोविन्दपाल (114) हरिपाल (115) गोविन्दप्रेम (116) नरसिंहपाल (117) अमृतपाल (118) प्रेमपाल (119) हरिचन्द्र (120) महेंद्रपाल
अंतिम चरण: (121) कल्याणपाल (122) केल्याणसेन (123) केशवसेन (124) गोपालसेन (125) महाबाहु (126) भद्रसेन (127) सोमचन्द्र (128) रघुपाल (129) नारायणसेन (130) चन्दपाल (131) पदमपाल (132) दामोदरसेन (133) वतरसाल (134) महेंश्वपाल (पाल) (135) वृजांगसेन (136) अभयपाल (137) मनोहरदास (138) संखराज (139) तुंगराज (तोमरपाल) (140) अनंगपाल तोमर (प्रथम)
राजेन्द्र सिंह तंवर रायली के एकत्रित जानकारी के अनुसार, यह विस्तृत वंशावली तँवर तोमर राजवंश की प्राचीनता और निरंतरता को प्रमाणित करती है। 140 पीढ़ियों की यह श्रृंखला भारतीय इतिहास में अद्वितीय है और महाभारत काल से लेकर मध्यकाल तक के निरंतर शासन का प्रमाण है।
अनंगपाल प्रथम का शासनकाल
अनंगपाल तोमर (प्रथम) 736 ई. से 754 ई. तक शासन किया। आदि राणा जाऊन जाजू को अनंगपाल (प्रथम) के नाम से जाना जाता है। इन्होंने यमुना के किनारे अनंगपुर में अपनी राजधानी बसायी थी। मुहत्ता नैणसी की ख्यात अनुसार दिल्ली के तोमर राज्य की स्थापना दिवस 809 वैशाख शुदी 13 (752 ई.) में की गयी। कनिघम व अबुल फजल ने दिल्ली तोमर राज्य की स्थापना 736 ई. तथा “दिल्ली के तोमर” ग्रंथ में इसका विस्तृत वर्णन है।
अनंगपाल प्रथम का शासनकाल तँवर तोमर राजवंश के इतिहास में स्वर्णिम अध्याय है। उन्होंने न केवल एक नई राजधानी की स्थापना की बल्कि एक सुदृढ़ प्रशासनिक व्यवस्था भी स्थापित की। अनंगपुर की स्थापना रणनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण थी क्योंकि यह यमुना के किनारे स्थित था और व्यापारिक मार्गों के केंद्र में था।
अनंगपाल प्रथम के शासनकाल में निर्माण कार्य:
- अनंगपुर नगर की स्थापना और किलेबंदी
- यमुना तट पर घाटों का निर्माण
- मंदिरों और धर्मशालाओं की स्थापना
- सिंचाई के लिए नहरों का निर्माण
- व्यापारिक मार्गों का विकास
इस काल में तोमर राज्य की सीमाएं विस्तृत हुईं। उत्तर में हिमालय की तलहटी से लेकर दक्षिण में चंबल नदी तक और पूर्व में गंगा से लेकर पश्चिम में राजस्थान की सीमा तक तोमर प्रभाव क्षेत्र था।
ऐतिहासिक महत्व और विरासत
तँवर तोमर राजवंश का ऐतिहासिक महत्व बहुआयामी है। यह वंश न केवल दिल्ली की स्थापना के लिए जाना जाता है बल्कि उत्तर भारत की राजनीति, संस्कृति और स्थापत्य में इसका योगदान अविस्मरणीय है।
सांस्कृतिक योगदान:
- भाषा और साहित्य: तोमर काल में संस्कृत के साथ-साथ स्थानीय भाषाओं का भी विकास हुआ
- कला और स्थापत्य: अनेक मंदिरों और किलों का निर्माण
- धार्मिक सहिष्णुता: हिंदू, जैन और बौद्ध धर्मों का समान संरक्षण
- व्यापार और वाणिज्य: व्यापारिक मार्गों का विकास और सुरक्षा
राजनीतिक विरासत:
तँवर तोमर राजवंश ने उत्तर भारत में एक स्थिर शासन व्यवस्था स्थापित की। उनकी प्रशासनिक व्यवस्था बाद के शासकों के लिए आदर्श बनी। दिल्ली को राजधानी बनाने का उनका निर्णय भारतीय इतिहास की दिशा बदलने वाला सिद्ध हुआ।
तोमर शासकों की न्यायप्रियता और प्रजा कल्याण की भावना उन्हें जनप्रिय बनाती थी। उन्होंने कृषि, व्यापार और शिल्प को प्रोत्साहन दिया। सिंचाई व्यवस्था का विकास और कृषि उत्पादन में वृद्धि उनकी प्रमुख उपलब्धियां थीं।
स्थापत्य विरासत:
तोमर काल की स्थापत्य कला का प्रभाव आज भी दिल्ली और आसपास के क्षेत्रों में देखा जा सकता है। अनंगपुर का किला, सूरजकुंड, और अनेक प्राचीन मंदिर इस काल की स्थापत्य कला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं।
तँवर तोमर राजवंश की यह गौरवशाली गाथा भारतीय इतिहास का अभिन्न अंग है। महाभारत काल से लेकर मध्यकाल तक की यह यात्रा भारतीय क्षत्रिय परंपरा की निरंतरता और जीवंतता का प्रमाण है। इस वंश ने न केवल राजनीतिक बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक क्षेत्रों में भी अमिट छाप छोड़ी है।